साहित्य

राम के साथ हमे उनके नाम की महत्ता को भी जानना जरूरी है…क्योंकि “राष्ट्र मंगल ही राम है”- पं.श्रीप्रकाश

श्रीरामनवमी पर विशेष- पं.श्रीप्रकाश तिवारी “श्रीरंग” (सहायक प्राध्यापक,डॉ.सी वी रमन विश्वविद्यालय करगीरोड कोटा) के कलम से

भगवान श्री हरि विष्णु जी ने अनेक अवतार लिए और संसार को संकट की घड़ी से मुक्त किया क्योकिं भगवान श्री नारायण ने द्वापरयुग में श्रीकृष्ण अवतार में कहा कि

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
अर्थात् जब जब अधर्म की वृद्धि होगी और धर्म की हानि होगी तब तब संसार के उत्थान के लिए मैं पृथ्वी पर अवरतण लूंगा।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी अपनी कृति श्रीरामचरितमानस में लिखा कि
जब जब होहि धरम के हानि।
बाढ़इ असुर अधम अभिमानी।।
तब तब प्रभु लै बिबिध सरीरा।
हरहि कृपा भव सज्जन पीरा।।
इत्यादि…….
उपरोक्त बातो से स्पष्ट है कि विश्व कल्याण की भावना से भगवान का सदा सर्वदा इस धरा पर अवतरण हुआ।
भगवान के अनेकावतार में एक अवतार त्रेतायुग में सूर्यकुल के श्रीराम के रूप में हुआ।
भगवान के अवतरण पश्चात गुरू वशिष्ठ जी के मार्गदर्शन पर चारो भाईयो का नामकरण संस्कार हुआ। और श्री वशिष्ठ जी ने सभी बालक के गुणो के अनुरूप नामकरण किया पर जब नामकरण संस्कार की बारी भगवान श्रीराम की आयी तब उन्होंने क्या कहा…..
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा।।
अर्थात भगवान राम कैसे है? तो राम सारे संसार को विश्राम प्रदान करने वाले है।
भगवान श्रीराम के नाम को जब हम अक्षरशः देखे तो
रा अर्थात् राष्ट्र और
म् अर्थात् मंगल।
कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान श्रीराम का अवतरण राष्ट्र का मंगल कर जगत को आनंद देने के लिए हुआ।
तो चलिये अब हम प्रसंग वश आगे बढ़ते है कि भगवान श्रीराम ने किसप्रकार राष्ट्र का मंगल किया?
सर्वप्रथम भगवान राम जब गुरू विश्वामित्र जी के यज्ञ रक्षा निवेदन पर उनके आश्रम की ओर प्रस्थान करते है तब मार्ग में उन्होनें ताड़का का वध किया। यही नही बल्कि श्री विश्वामित्र जी सहित समस्त मुनियों को मारिच सुबाहू के अत्याचार से उबारकर उनके यज्ञ की रक्षा की।
महाराज दशरथ ने श्रीराम जी के विवाहोपरांत श्रीराम राज्य के अभिषेक की घोषणा की जिसे जानकर भगवान राम को बड़ा खेद हुआ….
कि हम सब भाई साथ जन्म लिए सभी का यज्ञोपवीत शिक्षा दीक्षा विवाह सब साथ संपन्न हुआ पर राज्यभिषेक मुझे मिल रहा है, ऐसा क्यो ?
ये अनुचित बात है
जनमे एक संग सब भाई।
भोजन सयन केलि लरिकाई।।
करनबेध उपबीत बिआहा।
संग संग सब भए उछाहा।।
बिमल बंस यहु अनुचित एकू।
बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।
भगवान राम के मन में बड़ी पीड़ा होने लगी परंतु पिता जी और गुरू की आज्ञा अवहेलना प्रभु भला कैसे करते।
परंतु उनके अवतरण का मुख्य उद्देश्य, भूमि को असुरो के आतंक से मुक्त करना था इस हेतु उन्होंने अवतरण के पूर्व पृथ्वी सहित समस्त देवताओं को वचन भी दिया था जिसका वर्णन बाबा श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी ने बालकाण्ड में करते हुए कहा कि

जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह।।
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा।
तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा।।
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा।
लेहउँ दिनकर बंस उदारा।।
कस्यप अदिति महातप कीन्हा।
तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा।।
ते दसरथ कौसल्या रूपा।
कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा।।
तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई।
रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई।।
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई।
निर्भय होहु देव समुदाई।।

परंतु श्रीराम को राज्याभिषेक देने पर यह कार्य अपूर्ण हो रहा था और इस बात की ग्लानि बार बार भगवान राम को हो रही थी। भगवान श्री राम जो स्वयं नरावतार में लीला कर रहे थे वो भला कैसे कह पाते कि मुझे वन भेजिये ताकि मैं असुरों का संहार कर सकूं।
उस समय भगवान राम की अवस्था ठीक उस प्रकार हो गयी जिस प्रकार एक नवजात शिशु अपने मन की वेदना प्रस्तुत तो करना चाहता है पर मूक होने से कर नही पाता तब वेदना को रूदन कर प्रस्तुत करता है और उसकी मूक वेदना केवल माँ समझ सकती है। और भगवान राम ने इस वेदना को समझने के लिए माँ का ही चयन किया और वो भी अंबा कैकेयी का।
क्योकिं
अंबा कैकयी भगवान राम को बहुत स्नेह करती थी
मंथरा के कुटिल वचन सुनकर माता कैकयी ने राम के प्रति अपने स्नेह को स्पष्ट करते हुए कहा भी कि
कौसल्या सम सब महतारी।
रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी।
मैं करि प्रीति परीछा देखी।।
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू।
होहुँ राम सिय पूत पुतोहू।।
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें।
तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।
अंबा कैकेयी ने कहा कि राम तो मेरे प्राणो से भी प्रिय अतः मंथरा तुझे छोभ कैसा?
अब बात ध्यान देने योग्य यह है कि यहाँ पर माँ सरस्वती से देवताओ ने निवेदन किया कि श्रीराम का वन गमन हो, माता सरस्वती ने इस कार्य हेतु मंथरा को चुना, क्योकिं माँ केकैयी के हृदय को विचलित कर पाना सरस्वती जी के हाथों में नही था,
फिर भी कैकेयी जी की मति कैसे फिर गयी सोचने वाली बात है ?
केवल भगवान राम के अतिरिक्त किसी में इतना साहस नही था कि वे माता कैकेयी के मति को फेर सके और माता कैकेयी के अलावा पूरे अवध में ऐसा कोई पात्र नही था जो प्रभु की मूक वेदना को समझ सके।
इसी विषय में एक संक्षिप्त कथा यह है कि माता कैकेयी भगवान राम के राज्याभिषेक की बात सुनकर प्रसन्न हो रही थी उसी समय उन्हें अपना किया हुआ संकल्प याद आया कि मैंने भूमंडल के सारे राक्षसों, असुरों को नष्ट कर के अखंड राष्ट्र की सत्ता सूर्यवंश के भावी राजा के हाथो स्थापित करने का संकल्प लिया था। इस प्रकार बिना राक्षसों का विनाश के यदि राम का राज्याभिषेक हो जाता है तो यह संकल्प पूर्ण नहीं होगा इसलिए उन्होने प्रातः ही राम के वन गमन का निश्चय किया क्योकिं वो जानती थी कि उनके साथ सीताजी जाएंगी और श्रीराम से प्रेम करने वाले लक्ष्मण भी साथ जाएंगे। ऐसी स्थिति में कामी राक्षस सीता के सौंदर्य को देकर उसका अपहरण कर लेंगे और दोनो भाई समस्त राक्षसों का नाश कर राष्ट्र की अखंडता को स्थापित करने में सफल हो जायेंगे। क्योंकि माता कैकेई श्री राम और लक्ष्मण के और उनके विश्वविजयी शक्ति को विश्वामित्र जी के यज्ञ की रक्षा करते समय देखा था किस प्रकार श्रीराम ने अपने दिव्यास्त्रों से सुबाहू और उसकी राक्षसी सेना को दंड दे असुर जाति को चुनौती दिया था। और राजा दशरथ पुत्र मोह वश राम का राज्याभिषेक कर अयोध्या के नरेश बना इस महान कार्य में अवरोध स्थापित कर रहे थे।
इसलिए भगवान राम ने ही अपने मूक वेदना को माँ सरस्वती रूपी भावना से माता कैकेयी को आभास कराया ।
क्योकि माँ सरस्वती कठपुतली है और भगवान उसे नचाने वाले सूत्रधार। श्री रामचरितमानस में इसका दर्शन है
कि
सारद दारू नारि सम स्वामी।
रामसूत्र धर अंतर्यामी।
जेहि पर कृपा करहि जनु जानी।
कबि उर अजीर नचावहूँ बानी।।
बा.कां.रा.च.मा.
उनके ही प्रेरणा से माता सरस्वती ने माता कैकयी की बुद्धि को विचलित किया और स्वयं अपयश लेकर माता ने भगवान राम को वनवास भेजा वो भी किस हेतू…
राष्ट्र के मंगल हेतु……
और कैसे तो इस प्रकार
लोभ की वृत्ति में ऐसे फंसे सुर, स्वार्थ का ह्रौ सब साज सहेजा।
गाज गिरी नरराज पे तो, उनके मत में न हुआ कुछ बेजा।।
सीने पे साध लिया गिरिराज को, हो गया ऐसा कठोर कलेजा।
विश्व की मंगल कामना लेकर, कैकेयी ने राम को वन में भेजा।।
निसंक
इस सभी बातों से स्पष्ट होता है कि भगवान श्रीराम यथा नाम तथा गुण……
उन्होनें अपने नाम के रा अक्षर से राष्ट्र का और म अक्षर से मंगल किया।
ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचंद्र जी के चरणों में आज उनके पावन प्राकट्य उत्सव श्रीराम नवमी पर मैं कोटि कोटि प्रणाम करते हुए उनसे राष्ट्र मंगल की कामना करता हूँ।
जय जय सियाराम

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