श्रीराम के पावन चरित को पूर्ण करने में…आञ्जनेय श्री हनुमान जी का…अतुलनीय योगदान-पं.श्रीप्रकाश

श्रीहनुमान जन्मोत्सव पर विशेष
पं.श्रीप्रकाश तिवारी “श्रीरंग”
सहायक प्राध्यापक
डॉ. सी. व्ही.रमन विश्वविद्यालय करगी रोड कोटा के कलम से ✍
वायु हमे आरोग्यता प्रदान करती है, मानव शरीर की रक्षा करना वायु का कार्य है यह बात विज्ञान ,आयुर्वेद एवं योग इन सभी दृष्टि से संभव है।
यथा विज्ञान का कहना है कि जब तक सांस है तब तक आस है।
सांस से तात्पर्य यह कि जब तक व्यक्ति वायु ग्रहण करने और छोड़ने में सक्षम है तब तक वह स्वस्थ है अक्षम होने पर उसे कृत्रिम वायु दिया जाता है जिसे वेंटिलेटराइजेशन कहते है,परंतु फिर भी यदि मनुष्य वायु नही ले पाता है तो चिकित्सक कहते है कि इसे नाहक कृत्रिम वायु में रखकर और मत तड़पाओ और इसे ले जाओ। जैसे ही कृत्रिम वायु देना बंद किया जाता है वैसे ही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
यह शास्वत सत्य है।
योग एवं आयुर्वेद की दृष्टिकोण से-
मनुष्य के शरीर में पंचप्राण होते है
1.प्राण,
2.अपान,
3.समान,
4.व्यान
5.उदान।
इन सभी का संचालन पवन से होता है
क्योंकि जब भी हम भगवान को भोग प्रसादी अर्पण करते है तो
पुरूषसुक्त के 14वें सूक्त का उच्चारण करते है।
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्।।
तत्पश्चात आचमन कर कहते है
ॐ प्रणाय स्वाहा,
ॐ अपनाय स्वाहा,
ॐ व्यानाय स्वाहा इत्यादि
यदि इन पंचपप्राणों में जब विकृति आ जाती है तो व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है यहाँ तक वह मर भी सकता है|यही है की विकृति का कारण जो भी हो व्यक्ति को सर्वप्रथम श्वांस की व्यवस्था की जाती है।
इन पंचप्राणो का रक्षक पवन को ही माना गया है|
अब हम बात करते है श्रीरामावतार कथा की श्रीराम कथा में भी पंचप्राण हुए…….जिसकी रक्षा हनुमान जी ने की यही कारण है कि बाप (पवन देव)को 49 तो बेटा(हनुमान जी)को 50 की उपाधि दी गयी|
राम कथा के प्रमुख पात्र (पंचप्राण) की रक्षा हनुमान जी को ही करना था और हनुमान जी का कार्य सीता माता की खोज से शुरू होता है। यही कारण था की चार युग के वीर जामवंत जी ने हनुमान जी को उनके बल को स्मरण कराते हुए इशारा किया और कहा कि हे पवन देव के समान बलशाली पवनपुत्र तुम चुप क्यों बैठे हो उठो और राम का कार्य पूर्ण करो….
का चुप साधि रहेहू बलवाना।
पवन तनय बल पवन समाना।।
कि.कां.रा.च.मा.
हनुमान जी वंदना गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कुछ विशेष प्रकार से करते हुए लिखा
कि
प्रनवउँ पवनकुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार,बसहि राम सर चाप धर।।
इसीप्राकार आप पूरे मानस का सूक्ष्मावलोकन करेंगे तो हनुमान जी के शौर्य का जहाँ उल्लेख गोस्वामी जी ने किया है वहाँ पर “पवनकुमार” की संज्ञा से सुशोभित किया गया है
यथा-
जात पवन सुत देवन्ह देखा।….
सुं.कां.रा.च.मा.
आज सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवन कुमारा।।
सुं.का.रा.च.मा.
ताहि मारि मारूत सुत बीरा।…..
सुं.कां.रा.च.मा.
पवनतनय के चरित सुहाये।
जामवंत रघुपतिहिं सुनाये।।
सुं.कां.रा.च.मा.
इत्यादि
अब बात करते है रामजी के चरित्र को पूर्ण करने में विशिष्ट स्थान रखने वाले भैया लखनलाल जी की जो की पंचप्राण में से एक है, जब श्री राम रावण युद्ध के दौरान मेघनाद के शक्तिबाण प्रहार से लक्ष्मण जी के ऊपर अल्प समय के लिए विपत्ति आ गयी तब सब वीर बानर भालू सहित भगवान राम शोकातुर हो गए।
सुषेण नामक वैद्य ने बताया कि यदि सूर्योदय के पूर्व उत्तर दिशा में स्थित द्रोणगिरी पर्वत से संजीवनी बूटी नामक औषधि लाकर भैया लक्ष्मण जी को खिलाया जाए तो उनके प्राण को बचाया जा सकता है।
यह कार्य दुस्तर से भी दुस्तर था क्योंकि महज कुछ समय में पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक जाना बहुत कठिन था। इस कार्य के लिए सभी वीरों ने असमर्थता जताई तब सुषेण वैद्य ने श्री हनुमान जी वीरता को स्मरण करते हुए हनुमान जी से कहा कि यह कार्य मैं आप ही कर सकते हो।
राम पदारथबिंद सिर,नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि औषधि,जाहु पवनसुत लेन।
लंकाकांड श्री रा च मा
और हनुमान जी तुरंत श्रीराम जी के चरण को नमन कर उसे हृदय में धारण कर निकल पड़े।
राम चरन सरसिज उर राखी।
चला प्रभंजन सुत बल भाखी।।
लंकाकांड/श्री.रा.च.मा.
गोस्वामी जी ने इस चौपाई में हनुमान जी को प्रभंजन सुत कहकर स्पष्ट रूप से कहा कि पंचप्राण की रक्षा या तो पवन या फिर पवन पुत्र ही कर सकता है।
इसी प्रकार से जब भैया भरत के बाण से आहत हो फिर राहत पा हनुमान जी प्रस्थान किये तब गोस्वामी जी ने लिख दिया…..
भरत बाहु बल सील गुन,प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत,पुनि पुनि पवनकुमार।
अतः इन सभी बातों से स्पष्ट है कि मानस के पंच प्राण की रक्षा में पवन तनय की महत्वपूर्ण व अहम भूमिका है।
संदर्भित व्याख्या पुज्य गुरू देव की कृपा विद्वानो की पवित्र लेखनी, संतो का मार्गदर्शन एवं उनकी कृतियो का फल हैजिसे विनम्रतापूर्वक यथारूप अध्ययनकर मैने अपने मनोविचार से प्रस्तुत किया..
नाथ न कछु मोरे मनुसाई।।….
जय सिया राम,जय हनुमान जी